विश्वजलदिवस – 2023 पर
रचनाकार: अरुण तिवारी
पानी के तीन रूप, तीन गीत
मां भारती का जलगान है यह…
जयति जय जय जल की जय हो
जल ही जीवन प्राण है।
जल श्रेष्ठ प्रमुख देव है
औ श्रेष्ठ अनुपम दान है।
मां भारती का जलगान है यह,
यह देश भारत….
सागर से उठा तो मेघ घना,
हिमनद से चला नद प्रवाह।
फिर बूंद झरी, हर पात भरी,
सब संजो रहे मोती–मोती।
है लगे हजारों हाथ,
मां भारती का जलगान है यह, यह देश भारत…..
कहीं नौळा है, कहीं धौरा है,
कहीं जाबो कूळम आपतानी।
कहीं बंधा पोखर पाइन है,
कहीं ताल पाल औ झाल सजे।
कहीं ताल–तलैया ता ता थैया,
मां भारती का जलगान है यह, यह देश भारत….
यहां पनघट पर हंसी–ठिठोली है,
नदी तट पर लगती रोली है।
जल मेला है, जल ठेला है,
जल अंतिम दिन का रेला है।
जल पंचतत्व, जल पदप्रधान,
मां भारती का जलगान है यह, यह देश भारत….
जल वरुणदेव, नदियां माता,
जल ही वजु–पूजा–संस्कार।
जल से सारी सभ्यतायें,
जल ही सेहत और रोज़गार।
जल अनुपम है पर अनेक आधार,
मां भारती का जलगान है यह, यह देश भारत…..
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नदिया में मैं गंगा की धार बंधु
नदिया में मैं गंगा की धार बंधु,
देह कालिया का हूं मैं मर्दनहार बंधु।
लेना–देना मुझसे बस प्यार बंधु,
ओ बंधु रे…. ओ मेरे यार बंधु।।
ऋषिकेश में शिवा और मैं द्वारों में हरिद्वार,
प्रयागों में त्रिवेणी और मैदानों में बिहार।
भगीरथ सा तप हो लेता मैं अवतार बंधु,
मैं हूं क्षार, सागर पार है विस्तार बंधु।
नदिया में मैं गंगा की धार बंधु, ओ बंधु रे… ओ मेरे यार बंधु।
परबत से उतऊं या भूधर से फुटूं मैं,
जंगल में टहलूं या नगर–गांव दौडूं मैं।
मेघों से गोपिन से सब से तुम कहना बंधु
सागर है मेरा अंतिम प्यार बंधु।
नदिया में मैं गंगा की धार बंधु, ओ बंधु रे… ओ मेरे यार बंधु।
अविरल ही बहने दो, निर्मल ही रहने दो।
जोड़ो मत नदियों को, तरुवर को जीने दो।
प्रभु बांधने चला दुर्योधन, क्या तू चाहे रार बंधु,
बिन नैया उतारूं मैं उस पार बंधु।
नदिया में मैं गंगा की धार बंधु, ओ बंधु रे… ओ मेरे यार बंधु।
लहरों पर झूला तू, तीरों पर खेला तू,
रोटी की खुशबू में, रोली में, डोली में,
देखा है तूने मेरा सिर्फ प्यार बंधु,
न सुधरा तो कर दूंगा आरम–पार बंधु।
नदिया में मैं गंगा की धार बंधु, ओ बंधु रे… ओ मेरे यार बंधु।
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सागर रे, तू खारे रहना
चाहे बदले जगत् व्यवहार,
रुठे भित्ति प्राण संचार,
पर प्यास में हर सांस में
मिठास की खातिर,
सागर रे, तू खारे रहना..
बढ़ा है ताप अब इतना,
मन संताप अब इतना,
खलबली है मौसम में,
खु़द की ढाल, खु़द हमला,
अब अपनों से लड़ाई है।
सोत लड़ते हैं झरनों से,
तनातनी आत्मा तन में,
गले में फांस नदियों के,
घुला विष सांस नस–नस में,
द्वीपों के झुके सिर हैं।
पर प्यास में हर सांस में मिठास की खातिर,
सागर रे, तू खारे रहना..
मेघ बनता बरसता तू,
नदी तट ताल को भरता,
भूधरा का गर्भ पोषक,
ओस बनकर चातकों की
प्यास को तू मिटाता है।
उमड़ता तू सिकुड़ता तू,
तपता तू ही शीत बरखा,
हवा का रुख बदलता तू,
खुद का करके तू शोषण,
नीर में मधु है तू भरता।
पर प्यास में हर सांस में मिठास की खातिर,
सागर रे, तू खारे रहना..
ऋतु मन राग की खातिर,
आग में फाग की खातिर,
नदी में पद्य की खातिर,
चक्रवातों में गति तेरी,
तुझे थिर ही रहना है।
लिखा है कर्म में तेरे,
माटी सोंध की खातिर,
तुझको विष ही पीना है,
जब तक रार है जग में,
तुझे चित्त शांत जीना है।
पर प्यास में हर सांस में मिठास की खातिर,
सागर रे, तू खारे रहना..
……………….